के के ग्वाल
“वासुदेव सर्वमिति”(भ. गी. ७.१९), वे ही सर्वकार्य के कारण हैं,।
श्री..जी ही बुद्धि के प्रेरक हैं “बुद्धिप्रेरक कृष्णस्य”(त.दी.नि ३/५/१)। अतः श्री..जी की प्रेरणा से श्री..जी सर्वत्र सेवा स्वीकार कर रहे हैं
नाथद्वारा (गोस्वामी ची, युवराज विशाल बावा) वल्लभ सम प्रदाय कि प्रधान पीठ, श्रीनाथद्वारा के कण-कण में प्रभु का सुख ही विद्यमान है, यहाँ प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति, पशु ,पक्षी आदि श्रीजी सुखार्थ ही विराज रहे हैं,यह श्रीनाथद्वारा श्रीव्रजाधिप के यहाँ विराजने से व्रज ही हैं, इसलिए यहाँ सर्वत्र व्रज की ही भावना की जाती है,
यहाँ की नदी को श्रीयमुनाजी, बड़ा मगरा को श्रीगिरिराजजी, जंगलों को कुञ्ज आदि की भावना से दर्शन किया जाता है, यहाँ सेवक व्रजवासी हैं और यहाँ विराजमान समस्त देवी देवता श्रीजी के ही भक्त हैं। यह भूमिका हमने इसलिए कही है कि वर्तमान सन्दर्भ में श्रीनाथद्वारा में श्रीहनुमानजी की मूर्ति का विराजना भगवद् इच्छा से निश्चित हुआ है,जिस स्थान पर विराजना निश्चित हुआ है वहाँ हरिदासवर्य श्रीगिरिराजजी की भावना की जाती है,इस विषय में हमें अनेक जिज्ञासा प्राप्त हुई, उन जिज्ञासाओं को ध्यान में रखते हुए कुछ विचार हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं- यथा सर्वप्रथम तो जिनका श्री…जी में अनन्य आश्रय हो तो स्वप्न में भी अन्याश्रय का विचार नहीं आ सकता “अन्य का भजन स्वत: गमन एवं प्रार्थना स्वमार्ग में वर्जित है विवेकधैर्याश्रय(श्लोक १४)ग्रन्थ अनुसार। यहाँ अन्य देव का भजन इत्यादि का प्रश्न ही नहीं है,यहाँ तो स्पष्टतम एक भावनामात्र है उस भावना को पुष्टिमार्गीय दृष्टिकोण से समझना चाहिए|
पुष्टिमार्ग में रामनवमी के व्रत की आज्ञा है, पुष्टि सेवा प्रणाली में करखा के पद आते हैं(जिसमें श्रीरामलीला अन्तर्गत श्रीहनुमानजी की श्रीरामसेवा-श्रीरामकार्यसम्पादन का वर्णन है),नित्य के कीर्तन में कहानी के पद आते हैं जिसमें श्रीयशोदाजी प्रभु को श्रीरामकथा का वर्णन करती हैं। ध्यान रहे यह अन्याश्रय नहीं है क्योंकि प्रभु सुखार्थ है । श्रीरामभक्त हनुमानजी तो दास्य भक्ति का प्रतीक हैं और दास्य भक्ति का अर्थ अनन्य सेवक ही होना है,(अनन्यगामित्वं दास्यम् {सेवाकौमुदी/प्रथमप्रकरण})हनुमानजी अनन्यभक्ति का प्रतीक हैं।
प्रत्येक पुष्टिभक्त श्रीजी का अनन्य भक्त है। श्रीरामजन्म के समय वानरयूथमुख्य श्रीहनुमान जी ने प्रभु की बहुत सेवा की तत्पश्चात् श्रीकृष्णजन्म में प्रभु ने रामावतार में जिन वानरों ने प्रभु की सेवा की उनका पुष्टिपुरुषोत्तम श्रीजी ने बहुत ध्यान रखा, रामावतार से श्रीकृष्ण लीला को श्रीमहाप्रभुजी ने जोड़ते हुए जन्मप्रकरण (भा. १०/०१/२१-२२)सुबोधिनीजी में आज्ञा की है की रामावतार में प्रभु ने भक्तों को बहुत प्रतीक्षा करवायी दर्शन की, परन्तु श्रीकृष्णजन्म में दर्शन में विलम्ब न होगा और भक्त सदा उनके साथ रहेंगे और सुखी रहेंगे।अतः श्रीरामजन्म में उनके भक्त वानरों को प्रभु ने श्रीकृष्ण जन्म में अधिक आनन्द प्रदान किया है। वानर सम्बन्धी श्रीकृष्ण की लीला के विषय मे हम यहाँ केवल श्रीमद्भागवत/सुबोधिनीजी के मूलवचन ही लिख रहे हैं, विस्तार भय से उसका विवेचन नहीं कर रहे हैं यथा– मर्कान् भोक्ष्यन् विभजति स चेन्नात्ति भाण्डम् भिनत्ति..मर्कान्विभजति. मर्का मर्कटा:, मर्केभ्यो विभजतीत्यर्थ:. ते हि पूर्वं रामावतारभक्तास्तेष्वपि तृप्तेषु स्वयमध्यात्मा स्वीकृतभावो भुङ्क्ते। (भा./सुबोधिनीजी१०/८/२९)। उलूखलाङ्घ्रेरुपरि व्यवस्थितं मर्काय कामं ददतं शिविस्थितम्(भा.१०/९/८)निलायनै:सेतुबंधैर्मर्कटोत्प्लवनादिभि:।।सेतुबन्धान् कुर्वन्ति . रामावतारे ह्येक एव बन्ध: कृत:, एकैव सीतेति. अत्र यमुनादिषु बहूनेव बन्धान् करोति यत: पुलिनादिषु गत्वा रमणम् सिध्यति. किंच मर्कटोत्प्लवनादिकमपि करोति. वृक्षाद् वृक्षान्तरे गच्छति सर्वशाखाफल भोगार्थम्।(भा./सुबोधिनीजी१०/११/४९)। अतः यह सुस्पष्ट है कि प्रभु ने वानरों के साथ कैसी मधुर लीलायें की हैं,उन वानरों को। श्रीआचार्यचरण ने श्रीरामजन्म से भी जोड़ा है,इसलिये प्रभु की लीला में गाय,वानर, पक्षी आदि अनेक वन सम्बन्धी जीव हैं और प्रभु ने लीला श्रीगिरिराजजी एवं श्रीयमुनाजी के तट पर अधिक की हैं, श्रीकृष्ण अवतार काल में जैसे श्रीगिरिराजजी मे गाय,वानर,मोर आदि विराजते थे बस उसी भावना मात्र से हम वानर स्वरूप श्रीहनुमान जी को वहाँ श्रीगिरिराजजी पर पधरा रहे हैं,न कि उनकी वहाँ कोई प्राण प्रतिष्ठा होगी और न कोई पूजन का क्रम होगा, बस वे हाथ जोड़कर श्रीजी की ओर देखते हुए दर्शन की मुद्रा में होंगे। जैसे कि वे हनुमान हमें प्रेरित करेंगे कि हम सब मान भाव को छोड़ कर दीन भाव से श्रीजी के दर्शन करें। श्रीगिरिराजजी के पुष्टि मार्ग में दो भाव हैं एक तो भक्त श्रीहरीदासवर्य(देखें भा./वेणुगीतम्१०/२१/१८)और दूसरा स्वरूप स्वयं श्रीजी ।परन्तु श्रीनाथद्वारा में श्रीजी तो साक्षात् विराज रहे हैं तो हम यह भाव कर सकते है कि एक भक्त (श्रीहरीदासवर्य श्रीगिरिराजजी) के पास दूसरा भक्त(श्रीहनुमानजी)विराज रहे हैं एवं श्रीहनुमानजी स्वयं श्रीरूद्र के अवतार हैं और स्वयं शिव तो परम् वैष्णव हैं(वैष्णवानां यथा शम्भु:.. भा. १२/१३/१६) एक वैष्णव के पास दूसरे वैष्णव बिराज सकते हैं।और वानर रूप श्रीहनुमानजी वन में एवं श्रीशिव को पर्वत आदि में बिराजने में आनन्द आता है,परन्तु हम ऐसे खुले स्थान में स्वप्रभु के किसी भावनात्मक स्वरूप को बिराजमान नहीं कर सकते उनके सुख का विचार करके।अतः इस स्वरूप को श्रीजी की लीला से जोड़कर देखा जाए, एक भक्त वैष्णव के भाव से देखा जाए। अंत में एक धर्माचार्य होने के कारण मैं पुनः इस बात पर ध्यानाकर्षण करना चाहूंगा कि यह वर्तमान समय सनातन धर्म की रक्षा करने का है, विधर्मियों के समक्ष संगठित होने का है। अतः हम सब धर्म रक्षार्थ संगठित हों । हमारे श्रीजी संगठन का केन्द्र बनें।
किमधिकम् सर्वे भवन्तु सुखिनः श्रीगोवर्धनधारी तनोतु मङ्गलानि…