वृद्धाश्रम में जिंदगी गुजार रहे एक पिता का दर्द .

: मधुप्रकाश लड्ढा, राजसमंद
बुजुर्गों की भी अपनी कहानी, अपनी जुबां और अपना-अपना किरदार होता है। गम यही है की वो किसको कहे और कौन सुने उनके दिल की बात। जिससे उम्मीद होती है वो ही कोसों दूर हो जाते हैं। किसको निहारे वो रूहानी आंखे। कहां से वापस लाए वो बीते दिन जो अपनों की तरक्की में लूटाकर स्वयं ने बुढ़ापे की चादर ओढ़ ली। आज वही चादर बेतरतीब है। कोई झांककर तो देखे की उसमें कितने पैबंद लग गए हैं। असमय चेहरे पर उतर आई सलवटों को कौन सलीके से संवारेगा। कौन उनकी दुखती रगों पर अपनत्व के छींटे देगा।



यह हकीकत है वृद्धाश्रम के हर उस बुजुर्ग की जो अपनों की बेअदबी और एहसान फ़रामोशी को दिल पर पत्थर रख कर गमगीन बैठे हैं। कहने को जिंदा है लेकिन जीकर भी पल पल मर ही तो रहे हैं। में तो उनके जज्बातों को आप तक पहुंचाने का प्रयास भर कर रहा हूं, जो उनकी आंखों से अविरल बह रहें हैं।

रात के अंधेरे में दीवार पार के वृद्धाश्रम से आती एक बुजुर्ग की सिसकियों को सुन मेरी रूह सिहर उठी। अंधेरी रात और घड़ी की एक होती सुइयों को अनदेखा कर में यंत्रवत उस ओर बढ़ चला। दरवाजा खोलकर अंदर पहुंचा तो दिल धक रहा गया.. लगा जैसे बादलों की गर्जना भी तार-तार हुए शरीर की सिसकियों के सामने फिकी थी। दरवाजे की आहट सुनकर उनको लगा जैसे पुत्र के लौट आने की बरसों पुरानी आस पूरी हुई हो।

लेकिन मेरी जुबां से निकले बाबा शब्द ने उनको स्तब्ध कर दिया। निराशा से आंखों में उतर आए अश्कों ने उनके गाल को ओर ज्यादा गिला कर दिया। अनजाने ही सही निराश हथेलियों को ललाट पर रगड़ते हुए वो जिंदगी की जलन को बयां कर बैठे..

सुनकर लगा यह व्यथा नहीं, कथा है हर उस पिता की जो इस दौर से गुजर रहा है। काश: उनके दर्द को कोई अपना समझ पाता! आखिर एक पिता का दोष क्या है ? क्या पुत्र को प्रेम करना दोष है, क्या उसके अच्छे भविष्य के लिए खुद के अरमानों का गला घोंट देना दोष हैं ? भूखे प्यासे रहकर उसके सुनहरे भविष्य के लिए अथक मेहनत करना दोष है ? उच्च शिक्षा के प्रबंधन में स्वयं की जरूरतों से समझौता करना दोष है ? क्या संतान को बुढ़ापे की लाठी समझना दोष है ?

इतना सब कुछ हो जाने पर भी पिता का दिल तो पिता का ही होता है वो इन सब परिस्थितियों के बावजूद भी पुत्र को समझाना चाहते थे। वो जिस दौर से गुजर रहे हैं, उसको उससे बचाना चाहते थे। उनके शब्द शून्य थे लेकिन भाव प्रबल थे जैसे कहना चाहते हों कि.. संतान की शिक्षा, अशिक्षा, सफलता, असफलता कोई मायने नहीं रखती। मायने रखती हैं तो मां-बाप के प्रति उसकी श्रद्धा, उसका प्रेम, उसका अपनापन।

में संज्ञा शून्य था। सांत्वना के दो बोल के अलावा मेरे पास कुछ था भी नहीं। निराश मन और भारी कदमों के साथ लौट आया। पहली बार लगा जैसे धुएं के लिए किसी आग की जरूरत नहीं, आंखे नम और मन वेदना से पीड़ित था। हमने भौतिक उन्नति तो कर ली लेकिन संस्कारों को तिरोहित कर दिया…!!
(आलेख: मधुप्रकाश लड्ढा, राजसमंद)

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Author: Aapno City News

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