रूण फखरुद्दीन खोखर
रूण- वैश्वीकरण के दौर में बाजारीकरण का बोलबाला बढ़ता जा रहा है।बाजारवाद इस कद्र हावी हो चुका है जैसे देश पर डबल इंजन की सरकार । हालांकि अभी तक मेरे समझ में इतना ही आया है कि इंजन अगर डबल हो तो आपत्ति काल में एक इंजन के फेल होने पर दूसरा इंजन काम आ जाए और गंतव्य तक आसानी से पँहुचा जा सके।यह शब्द नये संदर्भों में अर्थ की गरिमा बढा रहा है अथवा घटा रहा है….भाषाशास्त्रियों के लिए प्रस्तुत है।
*डबल इंजन* शब्द का शाब्दिक अर्थ है दो इंजन। राजनैतिक संदर्भों में इसका अर्थ विस्तार राजनीतिक समझ रखने वाले करें ।हमें तो भाषागत अर्थ का पता है।रेल के आगे और पीछे, दोनों तरफ जुड़े इंजन तो हमने देखे हैं ।एक में तकनीकी खराबी होने पर दूसरे को काम में लिया जाता ही है।इधर राजनीतिक संदर्भ में *डबल इंजन* माने क्या???
दो प्रधानमन्त्री अथवा दो मुख्य मंत्री अथवा कुछ और?
हम तो समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक ठहरे।हम केवल अनुमान लगा सकते हैं ।
इंजन ताकत का प्रतीक है।इंजन ही शक्ति,ऊर्जा और गति उत्पन्न करके गंतव्य की ओर अग्रसर करता है।सरकार अगर इंजन है तो ईंधन जनता हुई।बिना ईंधन के इंजन चलता नहीं ।मगर रेल के इंजन और राजनीतिक इंजन में अंतर को समझना ठीक होगा।रेल के इंजन में तो पुराने जमाने में कोयला और आधुनिक जमाने में डीजल अथवा उत्तर आधुनिक काल में बिजली ही ईंधन का काम करती है।स्टेशन टू स्टेशन ईंधन की पर्याप्त व्यवस्था होती है।इधर राजनीतिक इंजन का ईंधन पाँच साल तक चलता है।इसलिए ईंधन भरवाते समय राजनीतिक इंजन चालक बड़ी सावधानी रखते हैं । लोकतंत्र के इंजन (सरकार) को ईंधन (वोटों) से भरने के लिए नोटों और सोटों का भी यत्र-तत्र इस्तेमाल करने के लिए हार्दिक प्रयत्न करने पड़ते हैं ।लोकतंत्र में इंजन की आयु ईंधन पर निर्भर तो करती ही है लेकिन चालक और उसके सहयोगी कार्मिकों की भूमिका भी मायने रखती है।भारतीय लोकतंत्र में हर साल कोई न कोई इंजन तैयार होता ही रहता है।कभी किसी सूबे का तो कभी किसी राज्य का।
इंजन तैयारी के लिए कुछ कलपुर्जे आवश्यक होते हैं ।तैयारी और पूर्व तैयारी ।पूर्व तैयारी में झूठ को सच में बदलने की कीमियागिरी का अभ्यास करना होता है।
एक- दूसरे पर मिथ्यारोपण, दूसरों की अच्छाई पर पर्दा डालना,अपनी गलतियों, पापों और अपराधों को विकास की श्रेणी में सिद्ध करना, वेशभूषा, भाषा और व्यवहार को सूरज की भाँति दिन में तीन चार बार बदलना, ढलना, ढालना, झाँसा, झूठ और झंडे के पक्के सिपाही तैयार करना, इंजन भरने की तारीख घोषित होने के बाद ईंधन को ईंधन से मजबूत करना, ईंधन के लिए पव्वा, पैसा, मेवा और सेवा इत्यादि से अपने ही इंजन की टंकी में घुसने की गुहार लगाना ।इधर इंजनों का बाजार भी गर्मी लिए होता है।छोटे-छोटे और बड़े-बड़े (हर साइज के) इंजन बाजार में ईंधन पाने को आतुर होते हैं ।
इस बाजारीकरण के दौर में जिसके पास जितना मजबूत ईंधन वशीकरण मंत्र होता है, वही इस बाजार में बाजी मार लेता है।
एक बार इंजन को ईंधन मिला तो समझो पाँच साल तक वह बराबर गति से चलता रहता है।एक ही ब्राँड (कंपनी) के दो इंजन यदि ईंधन से नवाजे गये तो समझो मंजिल बहुत जल्दी ही मिल जाती है।पाँच घंटे का सफर मात्र आधे घंटे में किया जा सकता है।हालांकि लोकतंत्र में संविधान नामक स्पीड ब्रेकर और इंजन को अनुशासन में रखने का सदुपाय भी होता है ।जो हमें चिल्ला चिल्ला कर समान भाव से और समान गति से चलने की हिदायत देता है भले ही दोनों इंजनों में ब्रांड भिन्न-भिन्न भी क्यों ना हो।लोकतंत्र की गाड़ी में इंजन की ईंधन के प्रति जवाबदेही होती है जिसका साइरन संविधान रुपी अनुशासन यंत्र बजाता रहता है।मगर इस पवित्र भारत भूमि पर पेट भरने के बाद आदमी को अजब गज़ब सूझता है।धाये अघाये इंजनों को रोक पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है।ईंधन की अधिकता से अजीर्ण हो जाता है। *अजीर्णे भोजनम् विषम्* की उक्ति को भी ताक पर रखते हुए रेगिस्तान के जहाज की तरह ईंधन की अतिरिक्त भरपाई करने के उपरांत इंजनों को रोक पाना मुश्किल हो जाता है।अत्यधिक गति और विचलन से अपनी ही खुराक का दुरुपयोग कर मनमानी गति से ईंधन की दुर्गति करने पर डबल इंजन इस लोकतंत्र की रेल की रैली निकाल देता है।ईंधन भी विवशताओं में विदीर्ण होकर अपनी नियति को कोसता रहता है।इसलिए ईंधन को समझना होगा कि उसी ब्रांड के इंजन में घुसे जो अनुशासित गति से सद्गति को प्राप्त होता है।
✍️ *भँवरलाल जाट*
*समकालीन व्यंग्य लेखक*
*मूंडवा (नागौर)*