आनंद, अस्तित्व की वह अवस्था है जिसमें कोई निर्भरता नहीं होती, क्यों कि जहां भी निर्भरता है,भय है।।

के के ग्वाल जी नाथद्वारा

और भयभीत आदमी कभी प्रसन्न, आनंदित नहीं हो सकता।”


दूसरे से सुख चाहिए तो भय,शंकादि होंगे ही क्यों कि दूसरे का ठिकाना नहीं।केवल स्वयं पर ही भरोसा किया जा सकता है।
इसके लिए स्वयं को ही समग्रता से समझना होगा ताकि आत्मनिर्भर होकर जीया जा सके।
“You must understand it,go into it, examine it,give your heart and your mind,with everything that you have,to find out a way of living differently.”
हम इतने ज्यादा परनिर्भर हैं सुख पाने के लिए कि हम स्वयं समग्रता से समझने की जिम्मेदारी उठाना ही नहीं चाहते। हमारे लिए कोई दूसरा समझे पर यह वैसा ही है जैसे अपनी भूख दूसरे के भोजन करने से मिटाना।ऐसा कैसे होगा? अपनी भूख अपने भोजन करने से ही मिटेगी।


कक्षा में सौ विद्यार्थी हैं। कहने को भीड है फिर भी हर विद्यार्थी को अपनी शक्ति,साहस व समझ से समझना होता है।हर एक का दायित्व व्यक्तिगत है।और दायित्व सामूहिक नहीं होते। कोई भी आदमी नासमझी से गैरजिम्मेदार हो सकता है। इसलिए हर आदमी की जिम्मेदारी पूरी तरह से व्यक्तिगत है।
हमारी बात है तो हम जिम्मेदार हैं।


यह जिम्मेदारी दो तरह से है-अपने को लेकर और दूसरों को लेकर।
सामान्य तया एक आदमी सुखी रहना चाहता है बिना दूसरों की परवाह किये।ऐसा आदमी भी है जो सदा आनंदित रहता है।वह दूसरों को सुखी करने का प्रयत्न नहीं करता मगर उसके आनंदित रहने से जो उसका संप्रेषण होता है वह सबको अच्छा लगता है,सभी आनंदित होते हैं।
क्रोधी,चिडचिडे,नाराज, परेशान आदमी कै साथ कौन रहना पसंद करता है?
आनंदित व्यक्ति किसीको सुख देने का प्रयास नहीं करता फिर भी उसके सानिध्य में सभी प्रसन्न रहते हैं। अवश्य वह मानसिक सुरक्षा के प्रयासों से मुक्त है।
हृदय में स्वयं की पूर्ण स्वतंत्रता की अनुभव स्थिति में आनंद घटित होता है।


गीता का कथन है-उससे बडा कोई लाभ नहीं।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन् स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते।।’
इसका अर्थ यह नहीं कि वह दुख से अविचलित रहने की कोशिश कर रहा होगा।यह तो पूरी समझ की,उस अनुभव स्थिति की बात है जिसे अब किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं।
प्रयास पहले जरुर करने होते हैं।जैसे किसी को ये सब बातें नयी लगती हैं तो एकदम से सब समझ में नहीं आ जायेगी।
नये विषय की कक्षा में प्रवेश करने वाले विद्यार्थियों को कठिनाई हो सकती है मगर उसी विषत पर उसी विषय के अध्यापक आपस में चर्चा करें तो क्या कठिनाई है?उनके सेमिनार आयोजित होते हैं।
फिर आध्यात्मिक चर्चा भौतिक चर्चा से भिन्न है। भौतिक चर्चा कुशाग्र बुद्धि से संभव है मगर आध्यात्मिक चर्चा के लिए तो अनुभूति का होना आवश्यक है।
शब्द सत्य नहीं बताते,शब्द केवल संकेत करते हैं,अनुभव स्वयं को करना होता है।
जो मित्र लेख के बड़े होने की बात कहते हैं ये वे मित्र हैं जो बिना अनुभूति के कोरे मन-बुद्धि से केवल शब्दों को पढ़ते हैं।वे शीघ्र ही उब जाते हैं।
जो अनुभूति करते हुए पढ़ते हैं उन्हें आनंद आता है।वे कहते हैं और लिखें।
और लिखना नित्य हो ही रहा है। सभी का संग्रह किया जाय तो अच्छी खासी पुस्तक तैयार हो जाय।
फिर मैं यह भी नहीं कह सकता कि यह लिखना कब तक जारी रहेगा। कभी तो यह बंद होगा ही।
हां,जो साधक प्रवृत्ति के लोग हैं उन्हें चाहिए कि वे इन लेखों का संग्रह करें,वे काम आते रहेंगे।
अनुभूति से लिखी गयी सभी बातें उपयोगी होती हैं, सभी के लिए उपयोगी होती हैं।बुद्धि से लिखी गयी बातें एक पाठ्यक्रम तक सीमित होकर रह जाती हैं।
अनुभूति पाने के लिए उस दिशा में प्रयोग करने होते हैं।केवल चाहने से अनुभूति हो जाय तो कहना ही क्या है। ऐसे क ई लोग हो सकते हैं जो चाहते हैं कि बिना कुछ किये वे जो चाहते हैं वह उन्हें प्राप्त हो जाय।
मन में निरंतर स्मृतियां उठती हैं, आदमी उनमें खोया रहता है। वही उसका जीवन बन जाता है।
सत्य की अनुभूति के लिए तो स्मृतियों का सिलसिला बंद होना पडे या उसके बाहर आना पडे।
यह कैसे होगा?
कृष्ण कहते हैं-‘यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है,उस उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार बार आत्मा में ही भली-भांति लगाये।’
‘यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।’
एक मित्र ने लिखा -ध्यान लगाने नहीं अपितु ध्यान हटाने की कला ही अध्यात्म है।’
रमण महर्षि कहते हैं -आगंतुक हर एक विचार को मिटाते जायें और पूछते रहे़-मैं कौन हूं?’
यह कहीं ध्यान लगाने की बात नहीं है।
दुनिया भर के विचार आये जा रहे हैं और ध्यान लगाने की कोशिश कर रहे हैं तो बडा संघर्ष होता है और सफलता नहीं मिलती।
फिर नकारात्मक विचार ज्यादा उठते हैं,वे दुख देते हैं। अतः सभी तरह के विचारों से ध्यान हटाते रहने की कोशिश बड़ी सहयोगी सिद्ध हो सकती है।
खोयेंगे ही नहीं तब किसी भी विचार में।
साधक संजीवनी में रामसुखदास जी कहते हैं-
‘ध्यान करते समय कभी संकल्प विकल्प आ जायें तो ‘अडंग बडंग स्वाहा’ कहकर संकल्प विकल्प (अडंग बडंग)की आहुति दे दे।’
साधक परम सत्य को पाना चाहता है, सामान्य व्यक्ति आनंद को।परम सत्य तथा आनंद दो अलग-अलग चीजें नहीं हैं फिर भी दृष्टि मानों अलग-अलग जगह पर रहती है।तब भी कोई हर्ज नहीं मगर अडंग बडंग विचारों में लगे रहने से तो कोई भला होता नहीं। विचार हर वक्त उठते रहते हैं, आदमी हर वक्त उनमें खोया रहता है।
सोचे तो सही-क्या यही जीवन है?
यही जीवन है तो तो वह समझा ही नहीं।
जीवन तो तभी है जब परम सत्य की अनुभूति हो और अखंड आनंद हो।

Aapno City News
Author: Aapno City News

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