Explainer: ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ को लागू करना आसान नहीं, संविधान में करने होंगे कई संशोधन, बनाने होंगे नए कानून

हाइलाइट्स

पूरे देश में एक साथ चुनाव में सदनों के कार्यकाल की तय संवैधानिक सीमा बड़ी चुनौती.
इससे निपटने के लिए संविधान में व्यापक बदलाव करने के साथ नए कानून बनाने होंगे.
एक राष्ट्र-एक चुनाव के बाद भी स्थिरता की क्या गारंटी है?

One Nation- One Election: केंद्र सरकार ने पूरे देश में एक साथ चुनाव (One Nation- One Election) की दिशा में एक बड़ा कदम उठाते हुए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद (Ramnath Kovind) को इस पर विचार करने वाली समिति का प्रमुख नियुक्त किया है. मगर इसके लिए संविधान में व्यापक बदलाव करने के साथ ही नए कानून बनाने होंगे. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक मामला केवल इतने से ही सुलझने वाला नहीं है. इसके लिए राज्यों के बीच आम सहमति और चुनाव के बाद की जटिलताओं से निपटने के लिए सरकार को तैयार रहना होगा. बीजेपी की केंद्र सरकार ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के विचार को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ती है तो ये उसके सामने आगे आने वाली कुछ प्रमुख चुनौतियां हैं.

पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए लोकसभा या राज्य विधानसभा के कार्यकाल में बदलाव करने में पहली चुनौती पांच साल के कार्यकाल की संवैधानिक रूप से निर्धारित सीमा है. संविधान के अनुच्छेद 83(2) और 172(1) में लोकसभा और विधानसभाओं के लिए क्रमशः ‘पांच साल’ और ‘उससे अधिक नहीं’ का कार्यकाल तय है. निर्वाचित सरकार के गिरने पर सदन के समय से पहले भंग होने के अलावा इस प्रावधान में कुछ अपवाद भी हैं. जन प्रतिनिधित्व अधिनियम- 1951 की धारा 14 और 15 चुनाव कराने की प्रक्रिया को नियंत्रित करती हैं. साथ ही चुनाव आयोग को संविधान से तय पांच साल की सीमा के मुताबिक चुनाव करवाने की भी जरूरत होती है.

सदनों का कार्यकाल एक बराबर रखना सबसे बड़ी चुनौती
किसी भी सदन के भंग होने पर उसका कार्यकाल कम किया जा सकता है, जो तब हो सकता है जब सरकार इस्तीफा दे देती है. जबकि कार्यकाल को बढ़ाने के लिए संविधान में एक महत्वपूर्ण संसोधन की जरूरत होगी. इन प्रावधानों में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की जरूरत होगी. हालांकि इस संभावित संशोधन के लिए आधे राज्यों के समर्थन की जरूरत नहीं हो सकती है, लेकिन अगर विधानसभाओं को समय से पहले भंग करने पर विचार किया जाता है, तो सभी राज्यों की सहमति जरूरी होगी. संविधान का अनुच्छेद 356 किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का प्रावधान करता है, जो किसी राज्य में चुनाव में देरी का एक दुर्लभ अपवाद है. हालांकि राष्ट्रपति इस शक्ति का प्रयोग राज्यपाल की सिफारिश पर तभी कर सकते हैं जब राज्य में ‘संवैधानिक मशीनरी खराब’ हो. इसमें भी संशोधन की जरूरत पड़ सकती है.

त्रिशंकु विधानसभा जैसे कई संकट
कानून में इन बदलावों के बावजूद चुनाव के बाद कई गंभीर मुद्दे सामने आ सकते हैं. जब कोई भी पार्टी चुनाव में बहुमत हासिल करने में विफल रहती है, तो त्रिशंकु विधानसभा की संभावना हो सकती है. ऐसे में समय से पहले चुनाव होने की भी संभावना होती है. उदाहरण के लिए दिल्ली में 2015 में समय से पहले चुनाव हुए थे. तब 2014 में कांग्रेस पार्टी के अपना समर्थन वापस लेने के बाद आम आदमी पार्टी की सरकार अपने कार्यकाल के 49 दिन बाद ही गिर गई थी. दसवीं अनुसूची के तहत दलबदल भी तय समय के बीच चुनाव कराए जाने के प्रमुख कारणों में एक है. जब कोई निर्वाचित सदस्य अपनी पार्टी बदलता है, तो वह नए सिरे से चुनाव लड़ सकता है और फिर से सदन में प्रवेश कर सकता है.

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लोकसभा में भी मध्यावधि चुनाव का संकट अधिक
2018 में एक मसौदा रिपोर्ट में विधि आयोग ने एक साथ चुनावों के पांच साल के कार्यक्रम को ध्यान में रखते हुए केवल ‘बचे हुए समय’ के लिए मध्यावधि चुनावों का प्रस्ताव रखा. जब मुख्यमंत्रियों या प्रधानमंत्री को सदन में अविश्वास मत का सामना करना पड़ता है तो मध्यावधि चुनाव की भी संभावना होती है. लोकसभा में मध्यावधि चुनाव के कम से कम सात उदाहरण देखे गए हैं. 12वीं लोकसभा 1999 में सरकार बनने के 13 महीने बाद ही भंग कर दी गई थी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा में विश्वास मत में हार गए थे.

Tags: 2024 Lok Sabha Elections, 2024 Loksabha Election, Assembly elections, One Nation One Election

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Author: Aapno City News

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